Thursday, July 29, 2010

अजीब इत्तेफ़ाक है...
















जिसने कभी करीबी बढाई,
आज वही हमसे दूर जा रहा है।
जिसने कभी था हसना सिखाया,
आज वही रोने पर मजबूर कर रहा है।
कभी थे हम जिसके सहारे,
वही आज मुझे अकेला छोड़कर जा रहा है।
जिसकी एक आहट पर, खिल उठता था रोम-रोम,
आज वही बेबसी की दास्ताँ सुना रहा है।
जिसने कभी था जीना सिखाया,
आज वही खुद को कमज़ोर महसूस कर रहा है।
अजीब  इत्तेफ़ाक है...

Thursday, July 15, 2010

वो दस घंटे...

यात्रीगण कृप्या ध्यान दें, जबलपुर के रास्ते होकर भागलपुर को जाने वाली गाड़ी लोकमान्य तिलक भागलपुर सुपरफास्ट एक्सप्रेस प्लेटफार्म संख्या 4 पर आ रही है...। इस वक्त मैं इटारसी स्टेशन पर अपनी गाड़ी का इंतजार कर रहा था। मेरे मन में घर जाने की एक अजब सी खुशी थी, लेकिन इस खुशी को साझा करने के लिए उस वक्त मेरे आसपास कोई भी नहीं था। जैसे ही घड़ी की सूई 8 पर गई, मैं इटारसी की प्रतीक्षालय को ‘फिर मिलेंगे’ कह प्लेटफॉर्म संख्या 4 के लिए निकल पड़ा।

जब मैं प्लेटफॉर्म पर पहुंचा, उस समय कुछ खास भीड़ नहीं थी। मन में सोचा कि वैसे भी अपनी टिकट कंफर्म नहीं, लेकिन स्लीपर के ग्राउंड फ्लोर की सोच मन ही मन मुस्काने लगा कि भई हर स्लीपर बॉगी तो अपनी ही है। लेकिन ये क्या मैं देख रहा हूं। मानो ऐसा लगा कि जैसे चींटी की माफिक पूरी फौज प्लेटफॉर्म के इर्द-गिर्द खड़ी सी हो गई। यह देख मेरी आंखे खुली की खुली रह गई। अचानक पता नहीं लड़कों की भीड़ इकट्ठा हो गई। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और बगल वाले से पूछ ही लिया। क्यों भई! ये भीड़ कैसी और कहां के लिए? ...तो जनाब जवाब यूं आया ‘हमनी के पटना जाय के।’ इतना सुनते ही मेरे होश फाख्ता हो गए। फिर क्या थोड़ी देर पहले मन में सीट की प्लानिंग को लेकर जितने भी लड्डु  फूट रहे थे, सब सत्यानाश हो गया। अब तो मन में यह डर समाने लगा कि ट्रेन के अंदर भी जा पाउंगा की नहीं।

चूंकि एक तो ट्रेन की भीड़, ऊपर से चढ़ने वाले यात्रियों व उनमें भी वेटिंग लिस्ट वालों की अलग से भीड़ और इन तीनों की दोगुणी भीड़ बिहार जाने वाले छात्रों की थी। अगर मुझे इस बात का पता होता कि उस दिन रेलवे बोर्ड की परीक्षा थी, तो मैं भूल से भी यह भूल करने की हिमाकत नहीं करता, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है, जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। मैं इसी कशमकश में था कि अब क्या होगा? इतने में गाड़ी की आवाज सुनाई दी और देखते ही देखते पूरी भीड़ सक्रीय हो गई। फिर क्या, मैंने भी उठाया अपना बैग और ट्रेन में घुस पाने की जंग में शामिल हो गया।

अब आप सोच रहे होंगे कि क्या मैंने वो जंग जीती। जी हां, इस वक्त मैं अपना पहला पड़ाव पार कर चुका था, किंतु ये नहीं जानता था कि अगला पड़ाव कब आएगा। एक बात स्पष्ट कर दूं कि अपने पूरे जीवन में मैंने ऐसी रेलयात्रा कभी नहीं की थी। वो कहते हैं न जो भी होता है, वह पहली बार होता है। मुझे किसी तरह टॉयलेट की बगल में एक इंच स्क्वायर फीट की जगह नसीब हुई और शायद अगले 10 घंटों तक उसी जगह सफर बदस्तूर जारी रहा। एक-एक सेकंड एक युग की तरह बीत रहा था।

लेकिन इस सफर में मुझे जितना अपनी आरामदायक जगह न मिलने का मलाल था, उससे कहीं ज्यादा मुझे उन बिहारी छात्रों के ऊपर दया आई, जो मासूमों की तरह कष्ट में भी ट्रेनों में यात्राएं कर रेलवे की परीक्षा देने कोसों दूर दूसरे राज्यों में केवल यह सोचकर जाते हैं कि शायद वहां की परीक्षा निकाल रेलवे में नौकरी प्राप्त कर सकें। बिहारी बिहार में ही परीक्षा देने से क्यों कतराते हैं? क्यों दूसरे राज्यों में कोशिश करते हैं? क्यों बिहार में रेलवे की परीक्षा में उपस्थिति 30-35 फीसदी ही रहती है? आपने सुना होगा कि लोहा लोहे को काटता है, ठीक उसीप्रकार बिहार में प्रतिभाओं का समूह वास करता है। चूंकि वहां स्क्रीनिंग 90-95 पर होती है और यही वह वजह है कि कुछ छात्र बाहर भी अपनी किस्मत आजमाते हैं। प्रतिभावान होने के बावजूद, चंद मुट्ठीभर नेता व उनकी ओछी राजनीति की वजह से बिहारियों को हर कहीं अपमान सहना पड़ रहा है।

चंद सवाल
मैं पूछता हूं कि आखिर बिहार सरकार कर क्या रही है?
क्यों हो जाते हैं बिहारी छात्र बाहर पढ़ने व नौकरी करने के लिए मजबूर?
आखिर वह कौन सी वजह है, जिसके कारण विकास की नदियां यहां बहने से पहले ही सूख जाती हैं?

Monday, July 5, 2010

प्रतिशोध

राजनीतिकारों पर और देश के गद्दारों पर
साठ साल किया हुआ शोध बाँट रहा हूँ
गाँव के चौबारों में और दिल्ली के गलियारों में
आम आदमी का प्रतिशोध बाँट रहा हूँ
कुर्सी की आग में जलेंगे सारे एक दिन
इसीलिए लोगों में विरोध बाँट रहा हूँ
जानता हूँ फर्क न पड़ेगा कोई फिर भी
हिजड़ों के गाँव में निरोध बाँट रहा हूँ
- सतीश राय
लेखक मेरे घनिष्ठ पत्रकार मित्र हैं.