Saturday, August 21, 2010

पापा कहते हैं, बड़ा नाम करेगा

 

पापा कहते हैं, बड़ा नाम करेगा...। ये चंद अलफाज हर पिता की भावनाओ को कहीं न कहीं व्यक्त करते हैं, लेकिन शहरों के बिगड़ते माहौल ने इन भावनाओं को घायल कर दिया है। जिंदगी के हर छोटे-से-छोटे सपने साकार करने वाले मां-बाप को उनके सपनों के तोहफे के रूप में केवल आस ही नसीब होती है। उनके द्वारा जलाए गए संस्कार रुपी ज्योति, शहर आते ही मद्धम होने लगती है।
सपनो से तेज भागती इस दुनिया में लड़का खुद को संभाल नहीं पाता और सही गलत का चुनाव करने की शक्ति खो बैठता है। इस नई दुनिया की हर चीज़ नई होती है, नए सहपाठी, नए शिक्षक और नए वातावरण। पर ये नई दुनिया कब उसकी वास्तविकता को खत्म कर देती है, पता ही नहीं चलता । दरअसल जिस लक्ष्य के साथ दूसरी शहर में उनका आना होता है, वे उस लक्ष्य व अपने माता-पिता के सपने को दरकिनार कर कुछ और ही बन जाते हैं। यहां उन्हें कुछ सहपाठी, शराब -सिगरेट आदि मोहने लगते हैं। यही नहीं बल्कि लड़कियों के नम्बर तक हासिल करना भी किन्हीं-किन्हीं के लक्ष्य तक बन जाते हैं। वे इस दुनिया में इतने रम जाते हैं कि देर रात जगने से लेकर देर से कॉलेज जाने तक को मजबूर हो जाते हैं। वास्तव में यह सब कुछ संगत का ही असर होता है।
सच ही कहा है हमारे बुजुर्गों ने, जैसी संगत वैसी रंगत। इसके साथ ही वह अपने जेब खर्च पर भी पकड़ नहीं बना पाते, जिसके कारण छोटी-मोटी नौकरी की तलाश फिर उधारी और बाद में कर्जे की मकड़जाल उन्हें जकड़ लेती है। एक पिता अपने बेटे को पढ़ाने के लिए पैसे कैसे इकट्ठा करता है, यह शायद उन युवाओं का पता नहीं, लेकिन इसका इल्म भी उन्हें जल्द ही हो जाएगा, जब वे खुद कमाने लायक हो जाएंगे। बहरहाल जिसे अच्छी संगत की सौगात मिली वह कामयाबी के शिखर पर पहुॅच जाता है और जिसे बुरी संगत मिली, वे अपनी जिंदगी को बर्बादी के अंधेरे में डुबो लेते हैं। यह अंधेरा न केवल उस चिराग को बुझाता है, बल्कि उस परिवार के लिए खून के आंसू भी छोड़ जाता है। सपनों से भरी उन आंखो में घुटन सी महसूस होती है, जो जीवन रहते भी जीने नहीं देती है। अरे! जरा उन बूढ़े माता-पिता से पूछो, जो दिन-रात मेहनत-मज़दूरी कर, बिना चैन की नींद सोए आप जैसे ही लाड़ले की पढ़ाई का बोझ ढोते हैं।  अगर इसी प्रकार युवावर्ग बिगड़ता चला जाएगा, तो वास्तव में एक-न-एक दिन उसका उज्वल भविष्य अंधकार की गहराइयों में डूब जाएगा।

लेखक मेरे छोटे भाई समान हैं
संदीप  सिंह, फिरोज़ाबाद
  

Thursday, August 5, 2010

कोइ तो सुने मेरे दिल को...






















कोइ तो सुने मेरे दिल को
कि वो क्या चाहता है...
नफ़रत भरी दुनिया से प्यार चाहता है...
प्यार भरे हाथ का एक साथ चाहता है...
दुनियादारी से परे अपनी एक दुनिया चाहता है...
मीठे बोल का एहसास चाहता है...
कोइ तो सुने मेरे दिल को...

लेखिका मेरी सखी है...
और प्यार से उन्हें हम शिव बुलाते हैं...

Thursday, July 29, 2010

अजीब इत्तेफ़ाक है...
















जिसने कभी करीबी बढाई,
आज वही हमसे दूर जा रहा है।
जिसने कभी था हसना सिखाया,
आज वही रोने पर मजबूर कर रहा है।
कभी थे हम जिसके सहारे,
वही आज मुझे अकेला छोड़कर जा रहा है।
जिसकी एक आहट पर, खिल उठता था रोम-रोम,
आज वही बेबसी की दास्ताँ सुना रहा है।
जिसने कभी था जीना सिखाया,
आज वही खुद को कमज़ोर महसूस कर रहा है।
अजीब  इत्तेफ़ाक है...

Thursday, July 15, 2010

वो दस घंटे...

यात्रीगण कृप्या ध्यान दें, जबलपुर के रास्ते होकर भागलपुर को जाने वाली गाड़ी लोकमान्य तिलक भागलपुर सुपरफास्ट एक्सप्रेस प्लेटफार्म संख्या 4 पर आ रही है...। इस वक्त मैं इटारसी स्टेशन पर अपनी गाड़ी का इंतजार कर रहा था। मेरे मन में घर जाने की एक अजब सी खुशी थी, लेकिन इस खुशी को साझा करने के लिए उस वक्त मेरे आसपास कोई भी नहीं था। जैसे ही घड़ी की सूई 8 पर गई, मैं इटारसी की प्रतीक्षालय को ‘फिर मिलेंगे’ कह प्लेटफॉर्म संख्या 4 के लिए निकल पड़ा।

जब मैं प्लेटफॉर्म पर पहुंचा, उस समय कुछ खास भीड़ नहीं थी। मन में सोचा कि वैसे भी अपनी टिकट कंफर्म नहीं, लेकिन स्लीपर के ग्राउंड फ्लोर की सोच मन ही मन मुस्काने लगा कि भई हर स्लीपर बॉगी तो अपनी ही है। लेकिन ये क्या मैं देख रहा हूं। मानो ऐसा लगा कि जैसे चींटी की माफिक पूरी फौज प्लेटफॉर्म के इर्द-गिर्द खड़ी सी हो गई। यह देख मेरी आंखे खुली की खुली रह गई। अचानक पता नहीं लड़कों की भीड़ इकट्ठा हो गई। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और बगल वाले से पूछ ही लिया। क्यों भई! ये भीड़ कैसी और कहां के लिए? ...तो जनाब जवाब यूं आया ‘हमनी के पटना जाय के।’ इतना सुनते ही मेरे होश फाख्ता हो गए। फिर क्या थोड़ी देर पहले मन में सीट की प्लानिंग को लेकर जितने भी लड्डु  फूट रहे थे, सब सत्यानाश हो गया। अब तो मन में यह डर समाने लगा कि ट्रेन के अंदर भी जा पाउंगा की नहीं।

चूंकि एक तो ट्रेन की भीड़, ऊपर से चढ़ने वाले यात्रियों व उनमें भी वेटिंग लिस्ट वालों की अलग से भीड़ और इन तीनों की दोगुणी भीड़ बिहार जाने वाले छात्रों की थी। अगर मुझे इस बात का पता होता कि उस दिन रेलवे बोर्ड की परीक्षा थी, तो मैं भूल से भी यह भूल करने की हिमाकत नहीं करता, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है, जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। मैं इसी कशमकश में था कि अब क्या होगा? इतने में गाड़ी की आवाज सुनाई दी और देखते ही देखते पूरी भीड़ सक्रीय हो गई। फिर क्या, मैंने भी उठाया अपना बैग और ट्रेन में घुस पाने की जंग में शामिल हो गया।

अब आप सोच रहे होंगे कि क्या मैंने वो जंग जीती। जी हां, इस वक्त मैं अपना पहला पड़ाव पार कर चुका था, किंतु ये नहीं जानता था कि अगला पड़ाव कब आएगा। एक बात स्पष्ट कर दूं कि अपने पूरे जीवन में मैंने ऐसी रेलयात्रा कभी नहीं की थी। वो कहते हैं न जो भी होता है, वह पहली बार होता है। मुझे किसी तरह टॉयलेट की बगल में एक इंच स्क्वायर फीट की जगह नसीब हुई और शायद अगले 10 घंटों तक उसी जगह सफर बदस्तूर जारी रहा। एक-एक सेकंड एक युग की तरह बीत रहा था।

लेकिन इस सफर में मुझे जितना अपनी आरामदायक जगह न मिलने का मलाल था, उससे कहीं ज्यादा मुझे उन बिहारी छात्रों के ऊपर दया आई, जो मासूमों की तरह कष्ट में भी ट्रेनों में यात्राएं कर रेलवे की परीक्षा देने कोसों दूर दूसरे राज्यों में केवल यह सोचकर जाते हैं कि शायद वहां की परीक्षा निकाल रेलवे में नौकरी प्राप्त कर सकें। बिहारी बिहार में ही परीक्षा देने से क्यों कतराते हैं? क्यों दूसरे राज्यों में कोशिश करते हैं? क्यों बिहार में रेलवे की परीक्षा में उपस्थिति 30-35 फीसदी ही रहती है? आपने सुना होगा कि लोहा लोहे को काटता है, ठीक उसीप्रकार बिहार में प्रतिभाओं का समूह वास करता है। चूंकि वहां स्क्रीनिंग 90-95 पर होती है और यही वह वजह है कि कुछ छात्र बाहर भी अपनी किस्मत आजमाते हैं। प्रतिभावान होने के बावजूद, चंद मुट्ठीभर नेता व उनकी ओछी राजनीति की वजह से बिहारियों को हर कहीं अपमान सहना पड़ रहा है।

चंद सवाल
मैं पूछता हूं कि आखिर बिहार सरकार कर क्या रही है?
क्यों हो जाते हैं बिहारी छात्र बाहर पढ़ने व नौकरी करने के लिए मजबूर?
आखिर वह कौन सी वजह है, जिसके कारण विकास की नदियां यहां बहने से पहले ही सूख जाती हैं?

Monday, July 5, 2010

प्रतिशोध

राजनीतिकारों पर और देश के गद्दारों पर
साठ साल किया हुआ शोध बाँट रहा हूँ
गाँव के चौबारों में और दिल्ली के गलियारों में
आम आदमी का प्रतिशोध बाँट रहा हूँ
कुर्सी की आग में जलेंगे सारे एक दिन
इसीलिए लोगों में विरोध बाँट रहा हूँ
जानता हूँ फर्क न पड़ेगा कोई फिर भी
हिजड़ों के गाँव में निरोध बाँट रहा हूँ
- सतीश राय
लेखक मेरे घनिष्ठ पत्रकार मित्र हैं.

Tuesday, April 27, 2010

आईपीएल बना बेहतर प्लेटफॉर्म

विवादों से घिरे आईपीएल के सीजन-3 में भले ही कई बड़े राजनेता और आईपीएल से जुड़ी हस्तियों का बंटाधार हुआ, लेकिन इस फटाफट क्रिकेट ने कई खिलाड़ियों को एक ऐसा प्लेटफॉर्म दिया, जिससे उनके भविष्य के सितारे तो चमकेंगे ही, साथ-साथ भारतीय क्रिकेट टीम को एक मजबूत स्थिति भी प्रदान की है। आईपीएल से उन्हें न केवल पैसा मिला, बल्कि बेहतरीन खेल दिखाने का अनुभव भी मिला।

आईपीएल कई खिलाड़ियों के लिए अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में एंट्री और वापसी कर भारतीय टीम में जगह बनाने के लिए एक अच्छे प्लेटफॉर्म के रूप में साबित हुआ है। भारतीय खिलाड़ियों में रोहित शर्मा, आरपी सिंह (डेक्कन चाजर्स ) और आशीष नेहरा (डेल्ही डेयरडेविल्स) की आईपीएल में प्रदर्शन के बाद ही भारतीय टीम में वापसी हो सकी थी, इसके अलावा बाएं हाथ के स्पिनर प्रज्ञान ओझा को 2009 विश्वकप ट्वेंटी-20 के लिए दक्षिण अफ्रीका में हुए आईपीएल में शानदार प्रदर्शन के बाद ही चुना गया था। वहीं इस साल पीयुष चावला (किंग्स इलेवन), विनय कुमार (रॉयल्स चैलेंजर्स) और मुरली विजय (चैन्नई सूपर किंग्स) को आईपीएल सीजन-3 में बेहतर प्रदर्शन के बलबूते ही वेस्टइंडीज़ में होने वाले 2010 विश्वकप ट्वेंटी-20 में भारतीय क्रिकेट टीम के 15 खिलाड़ियों में शामिल होने का मौका मिला है।

देखा जाए तो आईपीएल के सभी संस्करणों के दौरान भारतीय क्रिकेट और भी निखरता गया है। यूं कहें कि वैश्विक पटल पर भारतीय टीम का अन्य टीमों पर भी इस दौरान काफी दबदबा रहा। यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि आईपीएल की वजह से ही भारतीय टीम को एक अच्छा बैकअप मिला है। कहने का अभिप्राय यह है कि आज भारत के पास ऐसे कई जोशिले खिलाड़ी विकल्प के तौर पर मौजूद हैं, जो किसी भी बड़े खिलाड़ी के किसी वजह से टीम से बाहर होने पर जगह ले सकते हैं।

अगर आईपीएल को भ्रष्ठाचार और मोदी से जोड़कर न देखा जाए, तो शायद यह कुछ खिलाड़ियों के लिए एक अच्छे प्लेटफॉर्म के रूप में साबित हुआ है। चूंकि खेलप्रेमियों को जो चाहिए था, उसमें आईपीएल बिल्कुल खरा उतरा है।