Wednesday, December 1, 2010

आंसुओं की वो चमक आज भी याद है

              खुशियों के आंगन में कब गम का पहरा लगा, पता ही न चला। मुझे आज भी उनकी आंखों से बहते आंसुओं की वो चमक याद है। तब कमरे में अंधेरा था और वहां मौजूद दो लोगों के होंठ, जैसे सिल से गए थे। वातावरण बिलकुल शांत। आवाज़ आ रही थी, तो सिर्फ सांसों की। कमरे में जो थोड़ी बहुत रोशनी थी, उसमें खिला सा एक मासूम चेहरा ठीक मेरी नज़रों के सामने उस ग़मगीन माहौल को मुझसे छुपाने की कोशिश कर रहा था। आखिर कब तक छुपा पता। मोती रूपी आंसू एक-एक कर नेत्र सीमा के बहार आ ही गये।
यह मंजर था मेरी उससे दूसरी मुलाकात का। दुर्भाग्य से यह वह दिन था, जब किसी अनजान के समक्ष मेरी ख़ुशी को प्रस्तुत होना था। ऐसी परिस्थिति से शायद ही किसी का सामना हुआ होगा। इस मुलाकात से चार दिन पहले जिन खुशियों के सहारे अपने गांव गया था, मुझे अंदाज़ा भी न था कि जिंदगी के इस पड़ाव पर आकर ऐसे कड़वे सच से कभी सामना भी होगा।

Friday, September 10, 2010

कभी जो करीब था मेरे

कभी जो करीब था मेरे

कभी जो करीब था मेरे
आज क्यूँ दूर होता जा रहा है
क्या थी मेरी गलती
जो पल में मुझे भुला रहा है
शायद समझ न पाया वह मुझे
या समझना चाहता नहीं है
क्यूँ मेरे प्यार को
यूँ ही बेवफाई का नाम दे रहा है
जहाँ मेरी एक मुस्कान से
जगमगा उठती थी उसकी दुनिया
आज उसी मुस्कान को
फरेब समझ रहा है
जिसको मेरे हाथ का साथ था प्यारा
क्यों मेरे हाथों को
जंजीर समझ रहा है
कभी जो करीब था मेरे
क्यूँ दूर होता लग रहा है

लेखिका मेरी सखी है...
और प्यार से उन्हें हम शिव बुलाते हैं...

Saturday, August 21, 2010

पापा कहते हैं, बड़ा नाम करेगा

 

पापा कहते हैं, बड़ा नाम करेगा...। ये चंद अलफाज हर पिता की भावनाओ को कहीं न कहीं व्यक्त करते हैं, लेकिन शहरों के बिगड़ते माहौल ने इन भावनाओं को घायल कर दिया है। जिंदगी के हर छोटे-से-छोटे सपने साकार करने वाले मां-बाप को उनके सपनों के तोहफे के रूप में केवल आस ही नसीब होती है। उनके द्वारा जलाए गए संस्कार रुपी ज्योति, शहर आते ही मद्धम होने लगती है।
सपनो से तेज भागती इस दुनिया में लड़का खुद को संभाल नहीं पाता और सही गलत का चुनाव करने की शक्ति खो बैठता है। इस नई दुनिया की हर चीज़ नई होती है, नए सहपाठी, नए शिक्षक और नए वातावरण। पर ये नई दुनिया कब उसकी वास्तविकता को खत्म कर देती है, पता ही नहीं चलता । दरअसल जिस लक्ष्य के साथ दूसरी शहर में उनका आना होता है, वे उस लक्ष्य व अपने माता-पिता के सपने को दरकिनार कर कुछ और ही बन जाते हैं। यहां उन्हें कुछ सहपाठी, शराब -सिगरेट आदि मोहने लगते हैं। यही नहीं बल्कि लड़कियों के नम्बर तक हासिल करना भी किन्हीं-किन्हीं के लक्ष्य तक बन जाते हैं। वे इस दुनिया में इतने रम जाते हैं कि देर रात जगने से लेकर देर से कॉलेज जाने तक को मजबूर हो जाते हैं। वास्तव में यह सब कुछ संगत का ही असर होता है।
सच ही कहा है हमारे बुजुर्गों ने, जैसी संगत वैसी रंगत। इसके साथ ही वह अपने जेब खर्च पर भी पकड़ नहीं बना पाते, जिसके कारण छोटी-मोटी नौकरी की तलाश फिर उधारी और बाद में कर्जे की मकड़जाल उन्हें जकड़ लेती है। एक पिता अपने बेटे को पढ़ाने के लिए पैसे कैसे इकट्ठा करता है, यह शायद उन युवाओं का पता नहीं, लेकिन इसका इल्म भी उन्हें जल्द ही हो जाएगा, जब वे खुद कमाने लायक हो जाएंगे। बहरहाल जिसे अच्छी संगत की सौगात मिली वह कामयाबी के शिखर पर पहुॅच जाता है और जिसे बुरी संगत मिली, वे अपनी जिंदगी को बर्बादी के अंधेरे में डुबो लेते हैं। यह अंधेरा न केवल उस चिराग को बुझाता है, बल्कि उस परिवार के लिए खून के आंसू भी छोड़ जाता है। सपनों से भरी उन आंखो में घुटन सी महसूस होती है, जो जीवन रहते भी जीने नहीं देती है। अरे! जरा उन बूढ़े माता-पिता से पूछो, जो दिन-रात मेहनत-मज़दूरी कर, बिना चैन की नींद सोए आप जैसे ही लाड़ले की पढ़ाई का बोझ ढोते हैं।  अगर इसी प्रकार युवावर्ग बिगड़ता चला जाएगा, तो वास्तव में एक-न-एक दिन उसका उज्वल भविष्य अंधकार की गहराइयों में डूब जाएगा।

लेखक मेरे छोटे भाई समान हैं
संदीप  सिंह, फिरोज़ाबाद
  

Thursday, August 5, 2010

कोइ तो सुने मेरे दिल को...






















कोइ तो सुने मेरे दिल को
कि वो क्या चाहता है...
नफ़रत भरी दुनिया से प्यार चाहता है...
प्यार भरे हाथ का एक साथ चाहता है...
दुनियादारी से परे अपनी एक दुनिया चाहता है...
मीठे बोल का एहसास चाहता है...
कोइ तो सुने मेरे दिल को...

लेखिका मेरी सखी है...
और प्यार से उन्हें हम शिव बुलाते हैं...

Thursday, July 29, 2010

अजीब इत्तेफ़ाक है...
















जिसने कभी करीबी बढाई,
आज वही हमसे दूर जा रहा है।
जिसने कभी था हसना सिखाया,
आज वही रोने पर मजबूर कर रहा है।
कभी थे हम जिसके सहारे,
वही आज मुझे अकेला छोड़कर जा रहा है।
जिसकी एक आहट पर, खिल उठता था रोम-रोम,
आज वही बेबसी की दास्ताँ सुना रहा है।
जिसने कभी था जीना सिखाया,
आज वही खुद को कमज़ोर महसूस कर रहा है।
अजीब  इत्तेफ़ाक है...

Thursday, July 15, 2010

वो दस घंटे...

यात्रीगण कृप्या ध्यान दें, जबलपुर के रास्ते होकर भागलपुर को जाने वाली गाड़ी लोकमान्य तिलक भागलपुर सुपरफास्ट एक्सप्रेस प्लेटफार्म संख्या 4 पर आ रही है...। इस वक्त मैं इटारसी स्टेशन पर अपनी गाड़ी का इंतजार कर रहा था। मेरे मन में घर जाने की एक अजब सी खुशी थी, लेकिन इस खुशी को साझा करने के लिए उस वक्त मेरे आसपास कोई भी नहीं था। जैसे ही घड़ी की सूई 8 पर गई, मैं इटारसी की प्रतीक्षालय को ‘फिर मिलेंगे’ कह प्लेटफॉर्म संख्या 4 के लिए निकल पड़ा।

जब मैं प्लेटफॉर्म पर पहुंचा, उस समय कुछ खास भीड़ नहीं थी। मन में सोचा कि वैसे भी अपनी टिकट कंफर्म नहीं, लेकिन स्लीपर के ग्राउंड फ्लोर की सोच मन ही मन मुस्काने लगा कि भई हर स्लीपर बॉगी तो अपनी ही है। लेकिन ये क्या मैं देख रहा हूं। मानो ऐसा लगा कि जैसे चींटी की माफिक पूरी फौज प्लेटफॉर्म के इर्द-गिर्द खड़ी सी हो गई। यह देख मेरी आंखे खुली की खुली रह गई। अचानक पता नहीं लड़कों की भीड़ इकट्ठा हो गई। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और बगल वाले से पूछ ही लिया। क्यों भई! ये भीड़ कैसी और कहां के लिए? ...तो जनाब जवाब यूं आया ‘हमनी के पटना जाय के।’ इतना सुनते ही मेरे होश फाख्ता हो गए। फिर क्या थोड़ी देर पहले मन में सीट की प्लानिंग को लेकर जितने भी लड्डु  फूट रहे थे, सब सत्यानाश हो गया। अब तो मन में यह डर समाने लगा कि ट्रेन के अंदर भी जा पाउंगा की नहीं।

चूंकि एक तो ट्रेन की भीड़, ऊपर से चढ़ने वाले यात्रियों व उनमें भी वेटिंग लिस्ट वालों की अलग से भीड़ और इन तीनों की दोगुणी भीड़ बिहार जाने वाले छात्रों की थी। अगर मुझे इस बात का पता होता कि उस दिन रेलवे बोर्ड की परीक्षा थी, तो मैं भूल से भी यह भूल करने की हिमाकत नहीं करता, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है, जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। मैं इसी कशमकश में था कि अब क्या होगा? इतने में गाड़ी की आवाज सुनाई दी और देखते ही देखते पूरी भीड़ सक्रीय हो गई। फिर क्या, मैंने भी उठाया अपना बैग और ट्रेन में घुस पाने की जंग में शामिल हो गया।

अब आप सोच रहे होंगे कि क्या मैंने वो जंग जीती। जी हां, इस वक्त मैं अपना पहला पड़ाव पार कर चुका था, किंतु ये नहीं जानता था कि अगला पड़ाव कब आएगा। एक बात स्पष्ट कर दूं कि अपने पूरे जीवन में मैंने ऐसी रेलयात्रा कभी नहीं की थी। वो कहते हैं न जो भी होता है, वह पहली बार होता है। मुझे किसी तरह टॉयलेट की बगल में एक इंच स्क्वायर फीट की जगह नसीब हुई और शायद अगले 10 घंटों तक उसी जगह सफर बदस्तूर जारी रहा। एक-एक सेकंड एक युग की तरह बीत रहा था।

लेकिन इस सफर में मुझे जितना अपनी आरामदायक जगह न मिलने का मलाल था, उससे कहीं ज्यादा मुझे उन बिहारी छात्रों के ऊपर दया आई, जो मासूमों की तरह कष्ट में भी ट्रेनों में यात्राएं कर रेलवे की परीक्षा देने कोसों दूर दूसरे राज्यों में केवल यह सोचकर जाते हैं कि शायद वहां की परीक्षा निकाल रेलवे में नौकरी प्राप्त कर सकें। बिहारी बिहार में ही परीक्षा देने से क्यों कतराते हैं? क्यों दूसरे राज्यों में कोशिश करते हैं? क्यों बिहार में रेलवे की परीक्षा में उपस्थिति 30-35 फीसदी ही रहती है? आपने सुना होगा कि लोहा लोहे को काटता है, ठीक उसीप्रकार बिहार में प्रतिभाओं का समूह वास करता है। चूंकि वहां स्क्रीनिंग 90-95 पर होती है और यही वह वजह है कि कुछ छात्र बाहर भी अपनी किस्मत आजमाते हैं। प्रतिभावान होने के बावजूद, चंद मुट्ठीभर नेता व उनकी ओछी राजनीति की वजह से बिहारियों को हर कहीं अपमान सहना पड़ रहा है।

चंद सवाल
मैं पूछता हूं कि आखिर बिहार सरकार कर क्या रही है?
क्यों हो जाते हैं बिहारी छात्र बाहर पढ़ने व नौकरी करने के लिए मजबूर?
आखिर वह कौन सी वजह है, जिसके कारण विकास की नदियां यहां बहने से पहले ही सूख जाती हैं?

Monday, July 5, 2010

प्रतिशोध

राजनीतिकारों पर और देश के गद्दारों पर
साठ साल किया हुआ शोध बाँट रहा हूँ
गाँव के चौबारों में और दिल्ली के गलियारों में
आम आदमी का प्रतिशोध बाँट रहा हूँ
कुर्सी की आग में जलेंगे सारे एक दिन
इसीलिए लोगों में विरोध बाँट रहा हूँ
जानता हूँ फर्क न पड़ेगा कोई फिर भी
हिजड़ों के गाँव में निरोध बाँट रहा हूँ
- सतीश राय
लेखक मेरे घनिष्ठ पत्रकार मित्र हैं.

Tuesday, April 27, 2010

आईपीएल बना बेहतर प्लेटफॉर्म

विवादों से घिरे आईपीएल के सीजन-3 में भले ही कई बड़े राजनेता और आईपीएल से जुड़ी हस्तियों का बंटाधार हुआ, लेकिन इस फटाफट क्रिकेट ने कई खिलाड़ियों को एक ऐसा प्लेटफॉर्म दिया, जिससे उनके भविष्य के सितारे तो चमकेंगे ही, साथ-साथ भारतीय क्रिकेट टीम को एक मजबूत स्थिति भी प्रदान की है। आईपीएल से उन्हें न केवल पैसा मिला, बल्कि बेहतरीन खेल दिखाने का अनुभव भी मिला।

आईपीएल कई खिलाड़ियों के लिए अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में एंट्री और वापसी कर भारतीय टीम में जगह बनाने के लिए एक अच्छे प्लेटफॉर्म के रूप में साबित हुआ है। भारतीय खिलाड़ियों में रोहित शर्मा, आरपी सिंह (डेक्कन चाजर्स ) और आशीष नेहरा (डेल्ही डेयरडेविल्स) की आईपीएल में प्रदर्शन के बाद ही भारतीय टीम में वापसी हो सकी थी, इसके अलावा बाएं हाथ के स्पिनर प्रज्ञान ओझा को 2009 विश्वकप ट्वेंटी-20 के लिए दक्षिण अफ्रीका में हुए आईपीएल में शानदार प्रदर्शन के बाद ही चुना गया था। वहीं इस साल पीयुष चावला (किंग्स इलेवन), विनय कुमार (रॉयल्स चैलेंजर्स) और मुरली विजय (चैन्नई सूपर किंग्स) को आईपीएल सीजन-3 में बेहतर प्रदर्शन के बलबूते ही वेस्टइंडीज़ में होने वाले 2010 विश्वकप ट्वेंटी-20 में भारतीय क्रिकेट टीम के 15 खिलाड़ियों में शामिल होने का मौका मिला है।

देखा जाए तो आईपीएल के सभी संस्करणों के दौरान भारतीय क्रिकेट और भी निखरता गया है। यूं कहें कि वैश्विक पटल पर भारतीय टीम का अन्य टीमों पर भी इस दौरान काफी दबदबा रहा। यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि आईपीएल की वजह से ही भारतीय टीम को एक अच्छा बैकअप मिला है। कहने का अभिप्राय यह है कि आज भारत के पास ऐसे कई जोशिले खिलाड़ी विकल्प के तौर पर मौजूद हैं, जो किसी भी बड़े खिलाड़ी के किसी वजह से टीम से बाहर होने पर जगह ले सकते हैं।

अगर आईपीएल को भ्रष्ठाचार और मोदी से जोड़कर न देखा जाए, तो शायद यह कुछ खिलाड़ियों के लिए एक अच्छे प्लेटफॉर्म के रूप में साबित हुआ है। चूंकि खेलप्रेमियों को जो चाहिए था, उसमें आईपीएल बिल्कुल खरा उतरा है।

Saturday, February 13, 2010

क्या यही प्यार है...














हमेशा की तरह इस बार बुजुर्गों ने नहीं कहा। हाँ लेकिन युवापीढ़ी ने जरूर कहा। वैलेंटाइन डे यानि के प्रेमियों का पर्व। दो दिल का मिलन। इस दिन कोई प्यार का हाल-ए-दिल बयां करता है तो कोई अपनी वैलेंटाइन के लिए पूरा दिन न्यौछावर करता है।

14 फ़रवरी । हाँ। प्रेमपर्व। प्रेम के पंछियों का पर्व। जिस तरह एक बच्चे को उसका तोहफा उसे सबसे अजीज होता है। ठीक उसी प्रकार प्रेमी पक्षी एक दुसरे के लिए अपने आप को तोहफा समझते हैं। अब आप सोच रहे होंगे कि मैंने "समझते हैं" क्यों लिखा। क्या लगता है आपको। क्या वाकेई में प्रेम जैसा कुछ है आज के दौर में। दो-चार प्रेम कि बाते कर लेने मात्र से प्रेम नहीं हो सकता है।

आज प्रेम कि परिभाषा बदल चुकी है। प्रेम केवल स्वार्थ मात्र रह गया है। जी हाँ केवल स्वार्थ। जिसके साथ जीने मरने कि कसमें खायीं थी। आज उसी को हम समझ नहीं रहे। अगर कोई लड़की परिस्तिथिवश अपने प्यार को प्यार नहीं दे पा रही हो तो इसका मतलब ये तो बिलकुल ही नहीं है कि प्रेमी आक्रोश में आकर उसकी जान ले ले।

ये कैसा प्यार है। हाँ शायद आज के दौर में यही प्यार है।

मैं उन तमाम प्रेमियों को सन्देश देना चाहता हूँ कि प्यार जबरदस्ती कि चीज़ नहीं होती। प्यार तो एक एहसास है जिसे अलफ़ाज़ कि जरूरत नहीं होती.... फिर भी हैप्पी वैलेंटाइन डे।

Happy Valentine Day...















If u luv someone
No need to set her free or do suspect her
No need to say about that she will come or not
It's over to u that
Make that person happy
whom u luv d most
Than see How d life goes on...

Friday, February 5, 2010

एहसास माँ को...

पता नहीं पर क्यूँ लेकिन लिखने का मन किया और लिख डाला। हर बार की तरह 4 फ़रवरी की सुबह भी मेरे लिए एक नया सवेरा लेकर आया। सब कुछ ठीक चल रहा था ऑफिस में भी मस्ती के साथ पूरा दिन बीता लेकिन होनी को कौन टाल सकता हैजो होना है वह हो कर ही रहेगा

मैं
थोड़ा भावुक हूँ इसलिए भावनाओं में जल्दी बहक जाता हूँ28 फ़रवरी को रंगों का पर्व है और इस दिन हर कोई अपने रंग में सराबोर रहता है मन में अजीब सा कौतुहल घर जाने को लेकिन उफ़! ये काम कमबख्त पीछा ही नहीं छोड़ता। मेरी बॉस। काफी एनर्जेटिक और हार्डवर्कर भी। मुझसे कहा ग्वालियर जाना है। मैंने पहले कहा था न। भावुक। हाय ये कमजोर दिल। नहीं माना। ले ली टेंशन। मन में दो बातें घर कर गयीं। फिर क्या, एक ओर घर की याद दूसरी ओर बॉस की बात।

शाम को ऑफिस में ब्लॉग देखा फिर देखी घड़ी। घड़ी की सुई बता रही थी कि वापस जाने का वक़्त हो चला है। पहली बार दोस्त के साथ न जाकर अकेले ही निकल गया। लेकिन इस वक़्त भी अकेला नहीं था। साथ में थी मन में दो बातें। जो आपस में टकरा रही थी।

बाहर सड़क पर ट्रैफिक भी जबरदस्त थी। मैं चला जा रहा था कि अचानक सामने से मारूति अल्टो से जबरदस्त टक्कर हो गई। एक पल तो कुछ समझ में ही नहीं आया कि क्या हुआ। लेकिन भगवान और परिवार कि आशीष कि वजह से मुझे कुछ नहीं हुआ। सारे जख्म मेरी गाड़ी ने अपने ऊपर ले लिया।

लेकिन इन सब से दूर बैठी मेरी माँ को मेरे दर्द का एहसास हुआ और एक्सिडेंट के ठीक आधे घंटे बाद घर से पापा का कॉल आया। सबसे पहले मुझसे पुछा वहां सबकुछ ठीक है कि नहीं। मम्मी चिंता कर रही है और तुम फ़ोन भी नहीं करते हो। इतना कहते ही माँ ने फिर मेरा हाल पुछा। मैं घबरा गया। क्या बताऊँ। मैंने कहा कि यहाँ सब ठीक है...

लेकिन ये माँ कि ममता ही है जो उतनी दूर हो कर भी अपने बेटे पर आये खतरे को भांप लिया।

Monday, February 1, 2010

संवेदना

हर दिन हजारों मौत मरता हूं
जब भी होता हूं अखबार और चैनलों से रूबरू,
देख चारों ओर
मारकाट, अत्याचार और बलात्कार।
पूरे शरीर में एक सिहरन सी उठती है।

ख़बर में आज एक और इज्जत हुई तार-तार
फिर हुई नारी शक्ति लाचार, खूनी व वहसियों की शिकार
वहीं अपनो ने ही
धारदार हथियार से
अपने ही बंधुओं पर किया वार

यह क्या हो रहा है?
प्रभु भी सोच रहे होंगे, कितना बदल गया है संसार।
जिस बुद्धिजीवी प्राणी की रचना की
आज वही सृष्टि का
नाश करने पर उतारू हो गए है।

Sunday, January 17, 2010

मन में एक डर सा है














पता नहीं पर क्यूँ लगता है,
पास हो के भी दूर लगती हो
मन में एक डर सा है
खो न दूं कहीं तुम्हें

महीने भर कटा रहा
अजब सा लगता रहा
लगा जैसे धड़कने तेज हो गई
रातें और मुश्किल होती गई

एक ओर है दुनियादारी
दूजा है तेरी यारी
पलपल मेरी जान है जाती
मुझको तेरी याद सताती

मन में एक डर सा है
खो न दूं कहीं तुम्हें

Saturday, January 9, 2010

शहीद की लाईव मौत


यह शर्मनाक घटना तमिलनाडु के तिरुनलवली जिले की है।



वहां पड़ा था और उसके सामने से ७० कारों का काफिला निकल गया, पास हो के भी कोई नहीं था उसके पास। जाबांज था वो। समाज की गंदगी को मिटाने की एक छोटी सी कोशिश की थी उसने। सफलता के चार कदम उसने भी बढ़ाये थे। शुक्रवार के पहले एक हंसते हुए परिवार का सदस्य था। देर रात घर में कोई अपना उसका इंतजार पलके बिछाए कर रहा था। किसे पता था कि वह कभी नहीं लौट कर आएगा। पिछले वर्ष ज्योतिषों के मुख से सुना था कि साल की शुरुआत ग्रहण से होगी। हर कोई इस ग्रहण के प्रसाद का भागीदार होगा। लेकिन इसमें उसकी क्या गलती थी? बस इतना कि समाज में पनपे एक गंदे कीड़े की दंष से उसमें रह रहे लोगों को उसके दंश से मुक्त करना।

आर. वेत्रिवेल नाम था उस जाबांज एसआई का। मारा गया दुष्मनों के हाथ। एक दुश्मन ने दुश्मनी निभाई और दूसरे वो दो मंत्री। उनसे तो अच्छा दुश्मन भले। काश वेत्रिवेल दलित होता! तो शायद बात कुछ और ही होती। लेकिन इसमें भी उसका क्या दोष? वैसे भी किस्मत का मारा था वो।

लाईव आज की पहली डिमांड। सबकुछ लाईव होना चाहिए। अरे! वह भी किसी परिवार का सदस्य होगा। कोई तो होता जो उसे बचा पाता। आह! मैं तो भूल ही गया। वीडियों के रूप में उसकी यादें तो रही। मुझे माफ करना थोड़ा जज्बाती हो गया। क्या करूं ऐसे मुद्दे पर जल्दी आपा खो बैठता हूं।

नेता किसी का न होता। ये तो एसआई के तड़प-तड़पकर मरने के बाद आप सभी को पता चल ही गया होगा। आज एक वेत्रिवेल शहीद हुआ है कल कोई और। सिलसिला इसी तरह से चलता रहेगा और किसी न किसी रूप में फिर कोई हंसता परिवार मुरझाया हुआ फूल बन जाएगा। हम फिर टीवी चैनल पर किसी की लाईव मौत को हाथ पर हाथ धरकर देखेंगे।

कोई है जो उन बेशर्म मंत्रियों को कठघरे में लाएगा। क्योंकी बाकी बचे बेशर्म छिंटाकशीं करेंगे। कहां गई संवेदना?

Friday, January 8, 2010

जिम्मेदार कौन?

तारीख 26 अप्रैल और दिन था रविवार का। मैं अपने घर अपने गांव जा रहा था। सफर काफी लंबा था। इस नाते शरीर भी काफी थका हुआ था और मन भी। इसी पषोपेष में था कि कब अपने घर को पहुंचूंगा। मैं सीट संख्या 16 पर बैठा था कि अचानक मेरी नजर सीट संख्या 3 पर पड़ी जिसपर एक अंग्रेज बैठा था। एक समय मुझे लगा कि वो मुझसे भी ज्यादा बेबस और लाचार होगा। चूंकि उसे हमारी भाषा तो आती ही नहीं। अभिव्यक्ति ऐसे में किसी व्यक्ति की जान होती है। और जब उसकी अभिव्यक्ति को समझ नहीं पाएगा तो वह अपने आपका दुर्बल महसूस करेगा। दूसरे ही पल में मैने देखा कि वही अंग्रेज अपने ठीक विपरीत शैय्या पर बैठे एक गरीब और उसके बेटे की तस्वीर खींच रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो वह गरीब का मजाक उड़ा रहा हो। हो सकता है कि मैं मुगालते में हुंगा। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अगर हमारे देष में कोई विदेषी पर्यटक आते हैं तो यहां कि गरीबी ही क्योें यहंा कि खुबसूरती को क्यों नहीं निहारते। हमारा देष संस्कृति का देष है। स्लमडाॅग मिलेनियर भी इसका एक जीता जागता उदाहरण है। यहंा तो फिल्म की टाइटल ही मालूम हो जा रहा है। आखिरकार इसके जिम्मेदार कौन हैं?

चुनावी महापर्व में तो दीनदयाल की तरह नेता वोट की भीख मांगने आ जाते हैं। अरे जिन नेताओं का गांव की धुल मिट्टी से कभी वास्ता नहीं है और हमेषा वातानुकूलित घरों में रहने वाले भी सिर्फ वोट बैंक के लिए गांव की भोलीभाली जनता के साथ कदमताल मिलाने लगे हैं। अगर ये नेता एक अच्छा भारत चाहते, तो ये कभी एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप नहीं करते।
अभिषेक राय 26 April 2009

आईपीएल के जलवे

बंद आंखों से आस्था का चुनावी महापर्व अपने आखिरी पड़ाव की ओर बढ़ रहा है। न जाने वर्ष 2009 में इस पर्व ने लोकतंत्र के कितने रंग दिखाए हैं। इन रंगों के छींटे केवल भारतीय नागरिकों पर ही नहीं ब्लकि विश्व भर के दुसरे देषों पर भी पड़े हैं। भारत एक विकासशील देशों में से एक है और विकास के नित नए आयाम भी पेश कर रहा है। लेकिन पालिटिक्स में अभी भी बौद्धिक विकास की जरूरत है। पहले तो नोटों के बंडल उछलाकर शर्मसार किया और फिर अब आईपीएल यानि इंडियन पाॅलिटिकल लीग जूते और चप्पलों की वजह से सूर्खियों में रहा। यूं कहें कि आज जनता ने अपने अभिव्यक्ति का माध्यम बदलकर जूते और चप्पल कर लिए हैं। संसद और विधानसभा में चप्पल और जूते का रिवाज तो है ही किंतु अब तो खुलेआम इसे भी लोकप्रियता मिल रही है।


लेकिन ये बेकसूर जनता ने ये कभी नहीं सोचा कि गिद्ध दृष्टि जमाए हुए इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पल भर में सारी घटनाएं आॅन एयर कर देंगे। इनका क्या है भई। कुछ तो चटपटा होना चाहिए। ऐसा इसीलिए क्योंकि ये सारी घटनाएं विदेशी नागरिक भी देख रहे होते हैं, तो इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देष के बाहर भारत की छवि कितनी धूमिल हो सकती है। खैर इन बातों को छोड़िए। अब मंच टूटने के साथ-साथ जुबान भी बेलगाम हो गए हैं। बिना सोचे समझे कुछ भी कह गुजरते हैं नेता। कोई किसी पर बुलडोजर चला देने की बात कर रहा है तो कोई किसी को जादू की झप्पी के साथ पप्पी देने की बात कर रहा है। इसलिए राजनीति को मजाक न समझें उसमें बौद्धिक्ता लाएं क्योंकि इत्तेफ़ाक से वो देश को चलाने में सहयोग कर रहें हैं।


दुःख की बात तो यह है कि समाज जिसको अपराधी मानता है आज उन्हीं गंुडे और मवालियों को लोकतंत्र का फायदा मिल जाता है। वर्तमान के परिदृष्य को देखते हुए लगता है कि क्या वाकई में आम जनता का वोट कीमती है या महज एक औपचारिकता।


आशा करता हूं कि 16 मई को सही निर्णय आए। अभिषेक राय 5 May 2009

" समलैंगिक सम्बन्ध " जोर से बोलो करंट नहीं लगेगा

अब वो दिन दूर नहीं जब पप्पू संग दीपू और मीनू संग सीमा की बारात आप के घरों के बगल से गुजरेगी। पहले सुना था पप्पू पास हो गया है, लेकिन अब तो दीपू, मीनू, सीमा सभी पास हो गए हैं। अब वो एक दुसरे को फ्लाइंग किस्स देंगे और पुलिस केवल मूकदर्शक बनी देखती रहेगी।
भई! अब कौन धारा 14 और 21 का उल्लंघन करे। किसी के निजी कार्य में दखल देने का किसी को अधिकार नहीं है। बदलते ज़माने के साथ-साथ प्यार की परिभाषा भी बदल रही है जुहू चौपाटी, विक्टोरिया पार्क में अब दो लड़के और दो लडकियां (माफ़ कीजियेगा वयस्क) इश्क लड़ायेंगे और उनके मुह से निकलेगा " समलैंगिक सम्बन्ध " जरा जोर से बोलो करंट नहीं लगेगा। बहुत हो गया मजाक- मस्ती...। आप और हम सभी जानते हैं कि भारत संस्कृति का देश है, लेकिन आज हमारे देश को क्या हो गया है? ऐसा लग रहा है कि पाश्चात्य संस्कृति के भी कान काट लिए गए हों। चौंकिए मत, ये समाज में चंद लोगों कि वजह से ही हुआ है। बहस का मुद्दा है धारा 377 । 149 साल के लम्बे इतिहास में जो पहले नहीं हुआ, वो 2 जून, 2009 को हो गया। समलैंगिक सम्बन्ध को क्लीन चिट दे दी गयी। अप्राकृतिक! जिसकी भगवान ने भी मंजूरी नहीं दी किसी को। समाज आज जिस चीज को सही नहीं मानता, उसी को रजामंदी दे दी गयी। माना कि सभी को समान हक मिलना चाहिए, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि जो अमानवीय कृत्य कि श्रेणी में आता हो, उसे नजरअंदाज कर दिया जाये। यह समाज में रह रहे उन लोगों कि मानसिकताओं के साथ बलात्कार है, जो समलैंगिक सम्बन्ध को सही नहीं मानते। जरा सोचिये कि आने वाली पीढी पर इसका क्या असर पड़ेगा? कल तक जिस कार्य को अपराध माना जाता था, आज वो अपराध की श्रेणी में नहीं है। शायद हम यह नहीं जानते कि ऐसे सम्बन्ध को रजामंदी देने से हम एड्स जैसी भयावह बिमारी को भी न्योता दे रहे हैं।
- अभिषेक राय 3 June 2009