Friday, February 15, 2013

आखिर पुरुषों को कब समझेंगी ये महिलाएं !

आजकल फेसबुक पर रोज एक घोर नारीवादी, महिलावादी, नारी अधिकारों की शुभचिंतक. आजादख्याल लड़की, आधी आबादी की झंडाबरदार और विमेंस बर्ल्ड की अगुआ की पोस्ट देख रहा हूं, जो खूब लिखती हैं....लेकिन उनकी हर पोस्ट में एक ही स्यापा होता है...उन्हें पुरुषों से बेइंतहा शिकायत है...वो ये बताती नहीं थकतीं कि पुरुष समाज, कैसे-कैसे नारियों पर अत्याचार करता आया है और कर रहा है...महिलाओं के लिए तो ये दुनिया किसी नरक से कम नहीं....उनकी चले तो दुनिया को सिर्फ और सिर्फ महिलाओं से पाट दे...पुरुषों के लिए इस प्रकृति में कोई जगह ही नहीं...उन्हें हर प्यार करने वाला हसबैंड-बॉयफ्रेंड-भाई-पिता 'धोखेबाज' दिखता है...उनकी राय में परुष, महिलाओं से सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए प्यार करते हैं, सब के सब घोर स्वार्थी होते हैं...उनकी राय में अगर आपके हसबेंड को आपको बर्थडे याद है और वह कोई गिफ्ट ला रहा है, तो यह सिर्फ दिखावा है...यह हसबैंड-भाई की कोई चाल है...वगैरह-वगैरह...वो आपको सावधान करती हैं कि इन सब चीजों को तवज्जो मत दीजिए...आजाद ख्याल बनिए...वगैरह-वगैरह...

अब उन्हें कोई समझाए कि ये दुनिया इतनी भी बुरी नहीं है, जैसा उन्हें लगता है...अगर आपका हसबैंड-बाप-भाई आपको प्यार से चूमता है तो ये दिखावा नहीं होता...भगवान ने प्यार करना सिर्फ महिलाओं को नहीं सिखाया है...ये प्राकृतिक गुण औरत-मर्द दोनों में दिया है...अगर इस्लाम और
ईसाई मजहब के नजरिए से देखें तो आदम ने हव्वा के कहने पर ही जन्नत में उस वऋक्ष का फल तोड़ा था, जिसे तोड़ने के लिए खुदा ने मना किया था...आदम ने ऐसा सिर्फ हव्वा की मुहब्बत में किया था, खुदा का हुक्म तोड़ दिया था...इसी तरह अगर हिंदू माइथॉलॉजी की बात करें तो अपनी पत्नी सीता को छुड़ाने के लिए राम ने क्या जतन नहीं किए...समुद्र पर पुल बना दिया, कितनी लड़ाइयां लड़ीं और अंततः रावण को मारकर सीता को लंका से मुक्त कराया...

शायद ये उदाहदरण नाकाफी हो सकते हैं, ये बताने के लिए कि पुरुष भी प्यार कर सकते हैं, उसी शिद्दत से, जितनी शिद्दत से महिलाएं करती हैं...लेकिन अपने रोजमर्रा के जीवन में क्या महिलाएं किसी न किसी रूप में पुरुषों का प्यार नहीं पातीं??? एक शिक्षक के रूप में, बॉस के रूप में, घर में, बाहर...हर जगह...तो फिर बात-बात में पुरुषों को गाली देना और उसे नारी अधिकार से जोड़ देना कितना उचित है??? ऐसा करके तो आप विधाता के उस विधान का अपमान कर रही हैं, जिन्होंने इस प्रकृति की रचना की है...मर्द और औरत, दोनों एक-दूसरे के पूरक है...एक के बिना दूसरे का ठीक उसी तरह अस्तित्व नहीं, जिस तरह अंधेरे के बिना उजाले की कोई अहमियत नहीं...

सो अगली बार ऐसी कोई पोस्ट देखिए, तो जोश में उसे लाइक करके आप भी 'महिलावादी' बनने की जल्दी मत दिखाइए...पहले पढ़िए, समझिए और फिर उसे Thumbs Up or Thumbs down का तमगा दीजिए...अगर आप आचार-विचार-व्यवहार में अच्छे हैं, ईमानदार है तो आपको किसी से सर्टिफेकेट की जरूरत नहीं...हैरत होती है कि उनकी हर पोस्ट को लाइक करने और शेयर करने वालो में पुरुषों की तादाद ज्यादा है...इसे समझने की जरूरत है...किसी समाजशास्त्री-मानव विज्ञान शास्त्री से पूछने की जरूरत है कि ऐसा क्यों है??? 

साभार...Nadim S Akhtar

Monday, July 30, 2012

“Learning Through Sports”

जब भी मैं अपने बचपन के दिनों को याद करता हूँ तो मेरे और खेल के बीच मे एक अनोखा संबंध पाता हूँ। जिम्मेदारियों से परे, बिना किसी के भय के घंटो खेलते रहना मुझे अभी भी याद है और यह केवल मेरी बात नहीं है, बचपन अवस्था होती ही कुछ ऐसी है। शायद कोई ही ऐसा होगा जिसने बचपन मे कोई खेल न खेला हो। खेलरूपी मेरे कई मित्र रह चुके हैं लेकिन चेस और क्रिकेट का तो जैसे जुनून था। खेलों मे कुछ वो खेल भी थे जिन्हें हम गिल्ली–डंडा, कबड्डी ,हुतुतु ,खो-खो कहते हैं| आज भी इन सब खेलों को देखने या खेलने पर बचपन की यादें ताजा हो उठती है|
अगर खेल से सीख की बाते करें तो इसे हम बता नहीं सकते की इससे इतना ही ज्ञान प्राप्त होगा। हर खेल का अपना एक अलग महत्वपूर्ण योगदान है और कई चीजे सीखा देता है। कोई खेल हमे टीम भावना(मिल काम करना,एक दूसरे का सहयोग करना) सिखाता है तो कोई लक्ष्य हासिल करने के गुण। किसी खेल से हम अपने शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकते हैं तो कोई खेल साहस , संतुलन ,आत्मविश्वास एवं धैर्य आदि गुणों के विकास मे अहम भूमिका अदा करती हमे दिखाई देती है| काफी कम शब्दो मे खेल से सीख को परिभाषित करना नाइंसाफ़ी होगा। पापा कहते थे चेस खेलो दिमागी शक्ति बढ़ेगी, केरम खेलो एकाग्रता बढ़ेगी, पर किसी ने यह नहीं बताया की Physics के laws, chemistry के सूत्र, Math के सूत्र तथा अन्य विषयों के कठिनतम पक्ष भी हम खेल खेल मे सीख सकते हैं।(उदाहरण के तौर गुरुत्वाकर्षण के नियम, दवाब, गति, वेग ये सारी बातें हम बॉल के प्रयोग से सीख सकते हैं आदि)
भारत मे खेल के क्षेत्र मे अपना भविष्य देखना या कैरियर बनाना संघर्ष और चुनौती से भरा है, मिट्टी के बर्तन भी तभी बन पाते हैं जब मिट्टी गीली हो, सुखी मिट्टी से बर्तन बनाना अनापेक्षित है। सरकारी स्कूल मे जब बच्चा 9वीं कक्षा (15 वर्ष की आयु) मे प्रवेश लेता है तो ही PT मे प्रशिक्षण पा सकता है, और अगर कोई बच्चा इसके तरफ आकर्षित भी हुआ तो सही मार्गदर्शन एवं सही प्रशिक्षण का अभाव या शालाओं में व्यवस्थागत अभावों के कारण ऐसे विद्यार्थियों की पहचान नहीं हो पाती और ना ही उनकी निर्दोष बाल सुलभ बहुमूल्य ऊर्जा को एक उचित दिशा मिल पाती हैं जो उन्हें असीमित सफलता की ऊँचाइयों की ओर ले जा सकती है|
पढ़ाई मे अच्छे मार्क्स लाने के चक्कर मे और एक सुखद जीवन जीने के लिए लोग अपने खेलने के कौशल को कहीं पीछे छोड़ आते हैं। जिसका उदाहरण हम चल रहे ओलिम्पिक से ले सकते हैं जो कई सवालों को सामने ला खड़ा करता है, क्या 120 करोड़ की आबादी वाला देश सिर्फ 83 खिलाड़ी ही ओलिम्पिक मे भेज सकती है? क्या हमारे देश मे प्रतिभावों की कमी है या नीतियाँ कमजोर पड़ रही है? राजनीति कितना जवाबदार है इसके लिए? एक तरफ RTE बच्चों के सह संज्ञानात्मक क्षेत्रों के विकास के लिए वकालत कर रही है, परंतु क्या खेल संबन्धित संसाधन जूटा पा रही है? देश के अधिकांश राज्यों मे जहां विषय शिक्षक का आभाव है, वहाँ खेल प्रशिक्षक लाना कितना चुनौतीपूर्ण है?
बस एक आस रह जाती है लोगो के अंदर कि अब मेरा बच्चा वो सब करेगा जो मैं अपने कुछ पाबंदियों और ज़िम्मेदारी के कारण नहीं कर पाया।
Manish Kr. Singh

Azim prem ji foundation

Thursday, June 9, 2011

मेरी बस्ती में...

मेरी बस्ती में कहने को तो बहुत आए
हाथ जोड़े कर गए तमाम वादे 
फिर न जाने कहां गुम हो गए
पूछता हूं मैं
क्या गलती थी उन मासूमों की
क्यों भावनाओं से
की खिलवाड़ 
नहीं चाहिए झूठी उम्मीदें
न ही हम करते तुमसे आशाएं
बस इतना कर दो ऐ जालिम
कि मयस्सर हो सब को
दो जून की रोटी व चैन ‘ओ’ सुकूं
क्या मतलब ऐसी आजादी का
जहां घुट-घुट कर
है मरना लिखा
गर यहां कोई आवाज भी
उठाता
तो कत्लेआम का उसे खौफ सताता
अरे अब तो शर्म करो
ये अत्याचार बंद करो

Saturday, March 5, 2011

मन बहुत दुखी हुआ

कुछ मनचले भोपाल मैं लगी राजा भोज की प्रतिमा ओर उनके इतिहास को स्वीकारने से परहेज करते हैं यही वजह है की उन्होंने प्रतिमा के इतिहास की जानकारी देने वाली पट्टिका पर पान गुटखे की थूक से अपनी गन्दी मानसिकता का परिचय दिया है। प्रशासन प्रतिमा लगा कर इतिश्री कर चूका पर प्रतिमा की सुरक्षा ओर रख रखाव का क्या अब यह प्रतिमा हमारे शहर की अस्मिता से जुडी है ओर इसका यूँ अपमान असहनीय है। प्रशासन प्रतिमा इसकी सुरक्षा के लिए कानून बनाये ओर पकडे जाने पर दोषियों पर कार्यवाही करे। मेरा मन यह देख दुखी हुआ ओर मोबाइल से मैंने यह तस्वीर ली।
शिवेश श्रीवास्तव

Thursday, February 24, 2011

...वह तोड़ता पत्थर

उत्तर प्रदेश का सबसे छोटा और पिछड़े जिला में शुमार,आल्हा ऊदल की नगरी के नाम से ख्याति प्राप्त,वीर भूमि वसुंधरा के नाम से उद्बोधित..पानों का नगर..महोबा अपने में कई ऐतिहासिक तथ्यों को अपने में लीन किये है...बुंदेलखंड क्षेत्र से सबसे ज्यादा मंत्री होने के बावजूद ये जिला अपने काया कल्प और विकास के लिए आज भी सरकारी बाट जोह रहा है...पता नहीं कब तस्वीर बदलेगी..इस क्षेत्र की..यहाँ के नुमाइंदों की...खैर आज राजनैतिक बातें नहीं...मुद्दे की बात..
जिसने लोगों की सेवा में लगा दिया अपना बचपन .. जिले से राज्य और फिर राष्ट्र स्तर के बटोरे ढेरों पुरस्कार....जिस पर राष्ट्रपति भी हो गए निहाल..और दिया राष्ट्रपति सम्मान..जो बना युवाओं का आदर्श...मगर अफ़सोस कि वो मुफलिसी से हार गया..पेट की भूंख और रिश्तों के निर्वहन के दायित्व ने उसे तोड़ कर रख दिया..विधवा मां की बीमारी और तंगहाली से जूझने की राह ढूंढने में नाकाम हो गया वो.. लेकिन अभी भी उसमे हौसला है..उसको है अपनी जिम्मेदारियों का एहसास...जिसके लिए वो गिट्टी तोड़ने में हाड़तोड़ मेहनत कर वह अपनी पढ़ाई भी करता है और बीमार मां व बहन की परवरिश भी... मां के इलाज व बहन की शादी के लिये पैसे से लाचार ये कर्मवीर अब इस उधेड़बुन में है कि किसी तरह बहन के हाथ पीले करे..
इस कर्म योद्धा की कहानी सुनकर मुझे एक गीत कि पंक्तियाँ याद आती हैं...
बचपन हर गम से बेगाना होता है...
मगर कबरई कस्बे के राजेंद्र नगर के निवासी 17 साल के श्यामबाबू को नहीं पता कि बचपन क्या होता है...इसके होश संभालने के पहले पिता का साया इसके ऊपर से उठ चुका था..जिस उम्र में इसे अपने हम उम्र साथियों के साथ खेलना चाहिए था..उस समय इसके हाथ अपने परिवार को पालने के लिए हथौड़ा चलाते लगे... जब इसको अपना जीवन संवारना चाहिए तो इसे अपनों की रुश्वाइयों का शिकार होना पड़ा....बड़े भाई ने बीमार मां व छोटे भाई बहनों को छोड़ अपनी अलग दुनिया बसा ली...न रहने को मकान था और न एक इंच जमीन, कोई रोजगार भी नहीं.. इन कठिन हालात में इस कर्मवीर ने कस्बे के पत्थर खदानों में हाड़तोड़ मेहनत कर स्वयं मां व छोटे भाई बहनों की रोटी तलाश की...समाजसेवा का जज्बा होने के कारण अध्ययन के दौरान विविध गतिविधियों में हिस्सा ले खुद को तपाया...स्काउट गाइड, रेडक्रास सोसायटी, राष्ट्रीय अंधत्व निवारण कार्यक्रम, राजीव गांधी अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम जैसे तमाम आयोजनों में इस मेधा को प्रशिस्त पत्र दे सम्मानित किया गया...सम्मान और पुरस्कारों का क्रम जिले से शुरू हो राज्य और राष्ट्र स्तर तक पहुंचा...12 साल की उम्र में राज्यपाल टीवी राजेश्वर और 14 जुलाई 10 को राष्ट्रपति ने स्काउट गाइड के रूप में बेहतर सेवा के लिये इसे सम्मानित किया.... राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित यह किशोर अभी भी पत्थर खदानों में मजदूरी कर रहा है... बीमार मां के इलाज और सयानी बहन की शादी कैसे हो यह सवाल उसे खाये जा रहा है...हर पल उसे चिंता की आग में जला रहा है... जिले का गौरव बढ़ाने वाले इस किशोर के पास रहने को झोपड़ी तक नहीं...अब तक नाना नानी के घर में शरणार्थी की तरह रहने वाले इस परिवार को अब वहां भी आश्रय नहीं मिल पा रहा है... जिले से राष्ट्रीय स्तर तक तमाम प्रतियोगिताएं जीत चुका यह किशोर असल जिंदगी की प्रतियोगिता का मुकाम हासिल नहीं कर पा रहा है.. शादी योग्य बहन के हाथ पीले न कर पाने की लाचारी में वह इसे देख निगाहें झुका लेने को मजबूर है..राज्य स्तर के ढेरों पुरस्कारों व स्काउट गाइड में राष्ट्रपति से सम्मानित श्यामबाबू को किसी सरकारी योजना में शामिल नहीं किया गया... इसके पास न रहने को घर है न एक इंच भूमि... परिवार में कोई कमाने वाला भी नहीं... हद यह कि इस परिवार को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन का कार्ड भी हासिल नहीं हुआ... प्रशासन चाहता तो कांशीराम आवास योजना के तहत इसे छत तो दे ही सकता था पर वह भी नसीब नहीं हुई... इंदिरा और महामाया आवास भी नहीं मिले... हालात से जाहिर है जिले में ऐसे जरूरतमंद उंगलियों में गिनने लायक ही होंगे.... लेकिन ऐसे इन्हीं लोगों को जब छत और रोजगार न मयस्सर हो तो फिर सरकारी योजनाओं का लाभ किसे दिया जा रहा है....अपने आप में एक बड़ा सवाल है....
प्रतिभा तोडती पत्थर या पत्थरों से टूटती प्रतिभा इसे क्या कहा जाए..आप खुद सोचिये..

Sunday, February 20, 2011

शादी के मामले पुरुष ज्यादा गंभीर


प्यार तो बहुत लोग करते हैं लेकिन बहुत ही कम लोग ऐसे खुशनसीब होते हैं जिनका प्यार परवान चढ़ता है। कभी घर वालों की रजामंदी, कभी प्यार में आई तकरार के कारण प्यार करने वाले जोड़े बिछुड़ जाते हैं, आधे से भी कम लोग होते हैं जो प्यार को परवान चढ़ाते हुए शादी करते हैं।

प्यार और उसके बाद शादी, बहुत से लोग सोचते हैं कि महिलाएं प्यार होने के बाद शादी करने के लिए ज़्यादा आतुर होती हैं। लोगों के दिमाग में शायद यह विचार इसलिए घुमड़ता है क्योंकि पुरुषों की प्रवृत्ति होती है कि वह बहुत सी चीजों को हल्के में लेते हैं, लेकिन क्या शादी जैसे गंभीर विषय को भी वह हल्के में लेते हैं?

पुरुषों का चरित्र आत्मविश्लेषी होता है, और शादी के विषय में वह महिलाओं से भी ज़्यादा गंभीर होते हैं इसीलिए वह घर बसाने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं। एक शोध से पता चलता है कि पुरुष महिलाओं के पूरक होते हैं, समय के साथ-साथ पुरुषों के चरित्र में बहुत बदलाव आया है और इसी बदलाव का नतीज़ा है कि वह घर बसाने में ज़्यादा विश्वास करने लगे हैं।

डेटिंग वेबसाइट मैच डॉट कॉम के द्वारा कराए गए एक शोध से पता चलता है कि पुरुष घर बसाने के मामले में महिलाओं से ज़्यादा सचेत रहते हैं. इस शोध की सार्थकता को सिद्ध करने के लिए शोधकर्ताओं ने 5,199 पुरुष और महिलाओं पर शोध किया. शोध के परिणामों से पाया गया कि 51 प्रतिशत पुरुष, जो 21 से 34 वर्ष के बीच थे, का कहना था कि वह जल्द से जल्द अपना घर बसाना चाहते हैं, जबकि केवल 46 प्रतिशत महिलाओं ने इस विषय पर हामी भरी। 35 से 44 प्रतिशत अविवाहित पुरुष भी महिलाओं से आगे थे।


फादरहुड इंस्टीट्यूट के विचारक एड्रियन बर्गेस का भी यह मानना है कि पहले से ही पुरुष महिलाओं के मुकाबले जल्दी घर बसाने में विश्वास करते थे हालांकि कुछ समय पूर्व तक वह अपने उत्तरदायित्व निभाने पर ज़्यादा ध्यान देते थे। वह तब तक इंतजार करते थे जब तक वे आर्थिक रूप मजबूत न हो जाएं।
(जागरण जंक्शन से साभार)

Thursday, February 17, 2011

हम उपभोक्ता नहीं निर्माता हैं...

लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
नन्ही चीटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना,गिरकर चड़ना न अखरता है
.......
हरिवंशराय बच्चन की ये पंक्तियाँ बरबस ही याद आ गई...
राजधानी भोपाल के पास एक ग्राम पंचायत कुकरीपुरा का गाँव त्रिवेणी...जिसमे लोगों की मदद और सरकारी योजना के चलते बिजली से जगमग हो गया...एक ओर जहाँ राज्य सरकार केंद्र सरकार पर कोयला न देने का आरोप लगा रही है...और बिजली की कमी का रोना रो रही है....तो दूसरी ओर ग्रामीणों का सकारात्मक प्रयास से गाँव बिजली से रोशन हो गया...वहीँ त्रिवेणी के आसपास के गाँव अँधेरे में डूबे रहते है....करीब छह सौ की आबादी वाला ये गाँव जिसमे आधे से ज्यादा घरों के शौचालयों के टैंक सीवर लाइन से जोड़े गए...और फिर केंद्र सरकार की ग्रामीण स्वच्छता योजना के तहत इस मल से बायो गैस के ज़रिये बिजली उत्पादन किया जा रहा है...करीब ५ मेगावाट बिजली उत्पादित हो रही है इस गाँव में...गाँव के लोग अब बिजली के लिए अँधेरे में एक दूसरे का मुंह नहीं तकते हैं...बल्कि इस बिजली से गलियों में ट्यूब लाईट जलाई जाती है...किसी की शादी विवाह में भी रोशनी के लिए इसका उपयोग किया जा रहा है...सामुदायिक भवन भी रोशन हो रहा है...गाँव वालों का कहना है कि अभी जब पूरे घरों के सीवर टैंक इससे जुड़ जायेगे तो उत्पादन और बढ़ जायेगा..अब ग्रामीण न केवल टेलीवीजन चलाते हैं बल्कि एफ.एम. का आनंद भी लेते है....खैर...मेहनत तो रंग लाती ही है...बस जरूरी होता है ज़ज्बा..जोश..जूनून...और काम के प्रति लगन...
आप मेरी तकदीर क्या लिखेगें दादू?वो मेरी तकदीर है..जिसका नाम है विधाता....संजय दत्त का ये डायलोग विधाता फिल्म का याद आ गया....इस गाँव को देख कर क्या कहू...समझ नहीं आ रहा है...इतना खुश हूँ कि गाँव में रहने वाले दीन हीन लोग भी अब अपनी तरक्की के लिए आगे आ रहे हैं...और अपने विकास की इबारत भी खुद ही लिख रहे हैं....बस यही ज़ज्बा सब में आ जाये तो हिंदुस्तान को विकसित राष्ट्र बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा....