बंद आंखों से आस्था का चुनावी महापर्व अपने आखिरी पड़ाव की ओर बढ़ रहा है। न जाने वर्ष 2009 में इस पर्व ने लोकतंत्र के कितने रंग दिखाए हैं। इन रंगों के छींटे केवल भारतीय नागरिकों पर ही नहीं ब्लकि विश्व भर के दुसरे देषों पर भी पड़े हैं। भारत एक विकासशील देशों में से एक है और विकास के नित नए आयाम भी पेश कर रहा है। लेकिन पालिटिक्स में अभी भी बौद्धिक विकास की जरूरत है। पहले तो नोटों के बंडल उछलाकर शर्मसार किया और फिर अब आईपीएल यानि इंडियन पाॅलिटिकल लीग जूते और चप्पलों की वजह से सूर्खियों में रहा। यूं कहें कि आज जनता ने अपने अभिव्यक्ति का माध्यम बदलकर जूते और चप्पल कर लिए हैं। संसद और विधानसभा में चप्पल और जूते का रिवाज तो है ही किंतु अब तो खुलेआम इसे भी लोकप्रियता मिल रही है।
लेकिन ये बेकसूर जनता ने ये कभी नहीं सोचा कि गिद्ध दृष्टि जमाए हुए इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पल भर में सारी घटनाएं आॅन एयर कर देंगे। इनका क्या है भई। कुछ तो चटपटा होना चाहिए। ऐसा इसीलिए क्योंकि ये सारी घटनाएं विदेशी नागरिक भी देख रहे होते हैं, तो इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देष के बाहर भारत की छवि कितनी धूमिल हो सकती है। खैर इन बातों को छोड़िए। अब मंच टूटने के साथ-साथ जुबान भी बेलगाम हो गए हैं। बिना सोचे समझे कुछ भी कह गुजरते हैं नेता। कोई किसी पर बुलडोजर चला देने की बात कर रहा है तो कोई किसी को जादू की झप्पी के साथ पप्पी देने की बात कर रहा है। इसलिए राजनीति को मजाक न समझें उसमें बौद्धिक्ता लाएं क्योंकि इत्तेफ़ाक से वो देश को चलाने में सहयोग कर रहें हैं।
दुःख की बात तो यह है कि समाज जिसको अपराधी मानता है आज उन्हीं गंुडे और मवालियों को लोकतंत्र का फायदा मिल जाता है। वर्तमान के परिदृष्य को देखते हुए लगता है कि क्या वाकई में आम जनता का वोट कीमती है या महज एक औपचारिकता।
आशा करता हूं कि 16 मई को सही निर्णय आए। अभिषेक राय 5 May 2009
Friday, January 8, 2010
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1 comment:
6 Comments
Blogger योगेन्द्र मौदगिल said...
Sateek Chintan.......
July 3, 2009 7:53 PM
Blogger नरेश सिह राठौङ said...
पहली बार आपके ब्लोग पर आया हू । बहुत सुन्दर बलोग बनाया है । टिप्पणियां कम आती है । जिसका मुख्यकारण है कि आप दूसरे ब्लोग पर भी कम पहूंच पाते है और टिप्पणी देने मे कंजूसी करते है जैसा आप सोचते है वैसा ही दूसरे भी चाहते है । वर्ड वैरिफ़िकेशन हटा दे इससे टिप्पणी देने मे परेशानी आती है ।
July 3, 2009 9:48 PM
Blogger Rajesh Sharma said...
Prakriti bhi waqt ke anusaar badalti rahti hain, Fhalti rahti hain waqt ki jarurato ke hisaab se. Manav-deh ki kuch prakritik jarurate hain, agar wo jarurate prakritik tarike se poori na ho sake to manav prakriti alternative tarike talashne lagti hain, isme kuch bhi aprakritik nahi hain, jarurat hain sochne ke tarike me badlav ki. Haan main ye bhi maanta hoon ki jaanvaro tak me iss tarah ke samlaingik sambandh nahi dekhe jaate, par wo betio ko maa ki kokh me hi nahi marwate. samajh gaye na aap prakriti se khelne ka parinaam...
July 4, 2009 12:31 AM
Anonymous Chandar Meher said...
The more hue and cry we will make over this subject the more popularit it will get. There is no point discussing it. Although I appreciate your concern over the social cause. Best wishes.
Chandar Meher
Lifemazedar.blogspot.com
July 4, 2009 9:40 AM
Anonymous Anonymous said...
sabse pehle aapko badhayi achha likha hai. Lekin sayad hum aur aap k kahne aur likhne se kuch nahi hota. Desh vikassheel to hai hi saath saath kuch sambandhon ka bhi vikas hoga na
July 16, 2009 1:54 AM
Blogger aditya said...
nihsndeh es chinta k visay ne hamari sanskrity ko chita tak la khada kiya hai ..... i agree with u. very good .........
July 25, 2009 12:35 AM
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