Sunday, January 17, 2010

मन में एक डर सा है














पता नहीं पर क्यूँ लगता है,
पास हो के भी दूर लगती हो
मन में एक डर सा है
खो न दूं कहीं तुम्हें

महीने भर कटा रहा
अजब सा लगता रहा
लगा जैसे धड़कने तेज हो गई
रातें और मुश्किल होती गई

एक ओर है दुनियादारी
दूजा है तेरी यारी
पलपल मेरी जान है जाती
मुझको तेरी याद सताती

मन में एक डर सा है
खो न दूं कहीं तुम्हें

Saturday, January 9, 2010

शहीद की लाईव मौत


यह शर्मनाक घटना तमिलनाडु के तिरुनलवली जिले की है।



वहां पड़ा था और उसके सामने से ७० कारों का काफिला निकल गया, पास हो के भी कोई नहीं था उसके पास। जाबांज था वो। समाज की गंदगी को मिटाने की एक छोटी सी कोशिश की थी उसने। सफलता के चार कदम उसने भी बढ़ाये थे। शुक्रवार के पहले एक हंसते हुए परिवार का सदस्य था। देर रात घर में कोई अपना उसका इंतजार पलके बिछाए कर रहा था। किसे पता था कि वह कभी नहीं लौट कर आएगा। पिछले वर्ष ज्योतिषों के मुख से सुना था कि साल की शुरुआत ग्रहण से होगी। हर कोई इस ग्रहण के प्रसाद का भागीदार होगा। लेकिन इसमें उसकी क्या गलती थी? बस इतना कि समाज में पनपे एक गंदे कीड़े की दंष से उसमें रह रहे लोगों को उसके दंश से मुक्त करना।

आर. वेत्रिवेल नाम था उस जाबांज एसआई का। मारा गया दुष्मनों के हाथ। एक दुश्मन ने दुश्मनी निभाई और दूसरे वो दो मंत्री। उनसे तो अच्छा दुश्मन भले। काश वेत्रिवेल दलित होता! तो शायद बात कुछ और ही होती। लेकिन इसमें भी उसका क्या दोष? वैसे भी किस्मत का मारा था वो।

लाईव आज की पहली डिमांड। सबकुछ लाईव होना चाहिए। अरे! वह भी किसी परिवार का सदस्य होगा। कोई तो होता जो उसे बचा पाता। आह! मैं तो भूल ही गया। वीडियों के रूप में उसकी यादें तो रही। मुझे माफ करना थोड़ा जज्बाती हो गया। क्या करूं ऐसे मुद्दे पर जल्दी आपा खो बैठता हूं।

नेता किसी का न होता। ये तो एसआई के तड़प-तड़पकर मरने के बाद आप सभी को पता चल ही गया होगा। आज एक वेत्रिवेल शहीद हुआ है कल कोई और। सिलसिला इसी तरह से चलता रहेगा और किसी न किसी रूप में फिर कोई हंसता परिवार मुरझाया हुआ फूल बन जाएगा। हम फिर टीवी चैनल पर किसी की लाईव मौत को हाथ पर हाथ धरकर देखेंगे।

कोई है जो उन बेशर्म मंत्रियों को कठघरे में लाएगा। क्योंकी बाकी बचे बेशर्म छिंटाकशीं करेंगे। कहां गई संवेदना?

Friday, January 8, 2010

जिम्मेदार कौन?

तारीख 26 अप्रैल और दिन था रविवार का। मैं अपने घर अपने गांव जा रहा था। सफर काफी लंबा था। इस नाते शरीर भी काफी थका हुआ था और मन भी। इसी पषोपेष में था कि कब अपने घर को पहुंचूंगा। मैं सीट संख्या 16 पर बैठा था कि अचानक मेरी नजर सीट संख्या 3 पर पड़ी जिसपर एक अंग्रेज बैठा था। एक समय मुझे लगा कि वो मुझसे भी ज्यादा बेबस और लाचार होगा। चूंकि उसे हमारी भाषा तो आती ही नहीं। अभिव्यक्ति ऐसे में किसी व्यक्ति की जान होती है। और जब उसकी अभिव्यक्ति को समझ नहीं पाएगा तो वह अपने आपका दुर्बल महसूस करेगा। दूसरे ही पल में मैने देखा कि वही अंग्रेज अपने ठीक विपरीत शैय्या पर बैठे एक गरीब और उसके बेटे की तस्वीर खींच रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो वह गरीब का मजाक उड़ा रहा हो। हो सकता है कि मैं मुगालते में हुंगा। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अगर हमारे देष में कोई विदेषी पर्यटक आते हैं तो यहां कि गरीबी ही क्योें यहंा कि खुबसूरती को क्यों नहीं निहारते। हमारा देष संस्कृति का देष है। स्लमडाॅग मिलेनियर भी इसका एक जीता जागता उदाहरण है। यहंा तो फिल्म की टाइटल ही मालूम हो जा रहा है। आखिरकार इसके जिम्मेदार कौन हैं?

चुनावी महापर्व में तो दीनदयाल की तरह नेता वोट की भीख मांगने आ जाते हैं। अरे जिन नेताओं का गांव की धुल मिट्टी से कभी वास्ता नहीं है और हमेषा वातानुकूलित घरों में रहने वाले भी सिर्फ वोट बैंक के लिए गांव की भोलीभाली जनता के साथ कदमताल मिलाने लगे हैं। अगर ये नेता एक अच्छा भारत चाहते, तो ये कभी एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप नहीं करते।
अभिषेक राय 26 April 2009

आईपीएल के जलवे

बंद आंखों से आस्था का चुनावी महापर्व अपने आखिरी पड़ाव की ओर बढ़ रहा है। न जाने वर्ष 2009 में इस पर्व ने लोकतंत्र के कितने रंग दिखाए हैं। इन रंगों के छींटे केवल भारतीय नागरिकों पर ही नहीं ब्लकि विश्व भर के दुसरे देषों पर भी पड़े हैं। भारत एक विकासशील देशों में से एक है और विकास के नित नए आयाम भी पेश कर रहा है। लेकिन पालिटिक्स में अभी भी बौद्धिक विकास की जरूरत है। पहले तो नोटों के बंडल उछलाकर शर्मसार किया और फिर अब आईपीएल यानि इंडियन पाॅलिटिकल लीग जूते और चप्पलों की वजह से सूर्खियों में रहा। यूं कहें कि आज जनता ने अपने अभिव्यक्ति का माध्यम बदलकर जूते और चप्पल कर लिए हैं। संसद और विधानसभा में चप्पल और जूते का रिवाज तो है ही किंतु अब तो खुलेआम इसे भी लोकप्रियता मिल रही है।


लेकिन ये बेकसूर जनता ने ये कभी नहीं सोचा कि गिद्ध दृष्टि जमाए हुए इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पल भर में सारी घटनाएं आॅन एयर कर देंगे। इनका क्या है भई। कुछ तो चटपटा होना चाहिए। ऐसा इसीलिए क्योंकि ये सारी घटनाएं विदेशी नागरिक भी देख रहे होते हैं, तो इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देष के बाहर भारत की छवि कितनी धूमिल हो सकती है। खैर इन बातों को छोड़िए। अब मंच टूटने के साथ-साथ जुबान भी बेलगाम हो गए हैं। बिना सोचे समझे कुछ भी कह गुजरते हैं नेता। कोई किसी पर बुलडोजर चला देने की बात कर रहा है तो कोई किसी को जादू की झप्पी के साथ पप्पी देने की बात कर रहा है। इसलिए राजनीति को मजाक न समझें उसमें बौद्धिक्ता लाएं क्योंकि इत्तेफ़ाक से वो देश को चलाने में सहयोग कर रहें हैं।


दुःख की बात तो यह है कि समाज जिसको अपराधी मानता है आज उन्हीं गंुडे और मवालियों को लोकतंत्र का फायदा मिल जाता है। वर्तमान के परिदृष्य को देखते हुए लगता है कि क्या वाकई में आम जनता का वोट कीमती है या महज एक औपचारिकता।


आशा करता हूं कि 16 मई को सही निर्णय आए। अभिषेक राय 5 May 2009

" समलैंगिक सम्बन्ध " जोर से बोलो करंट नहीं लगेगा

अब वो दिन दूर नहीं जब पप्पू संग दीपू और मीनू संग सीमा की बारात आप के घरों के बगल से गुजरेगी। पहले सुना था पप्पू पास हो गया है, लेकिन अब तो दीपू, मीनू, सीमा सभी पास हो गए हैं। अब वो एक दुसरे को फ्लाइंग किस्स देंगे और पुलिस केवल मूकदर्शक बनी देखती रहेगी।
भई! अब कौन धारा 14 और 21 का उल्लंघन करे। किसी के निजी कार्य में दखल देने का किसी को अधिकार नहीं है। बदलते ज़माने के साथ-साथ प्यार की परिभाषा भी बदल रही है जुहू चौपाटी, विक्टोरिया पार्क में अब दो लड़के और दो लडकियां (माफ़ कीजियेगा वयस्क) इश्क लड़ायेंगे और उनके मुह से निकलेगा " समलैंगिक सम्बन्ध " जरा जोर से बोलो करंट नहीं लगेगा। बहुत हो गया मजाक- मस्ती...। आप और हम सभी जानते हैं कि भारत संस्कृति का देश है, लेकिन आज हमारे देश को क्या हो गया है? ऐसा लग रहा है कि पाश्चात्य संस्कृति के भी कान काट लिए गए हों। चौंकिए मत, ये समाज में चंद लोगों कि वजह से ही हुआ है। बहस का मुद्दा है धारा 377 । 149 साल के लम्बे इतिहास में जो पहले नहीं हुआ, वो 2 जून, 2009 को हो गया। समलैंगिक सम्बन्ध को क्लीन चिट दे दी गयी। अप्राकृतिक! जिसकी भगवान ने भी मंजूरी नहीं दी किसी को। समाज आज जिस चीज को सही नहीं मानता, उसी को रजामंदी दे दी गयी। माना कि सभी को समान हक मिलना चाहिए, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि जो अमानवीय कृत्य कि श्रेणी में आता हो, उसे नजरअंदाज कर दिया जाये। यह समाज में रह रहे उन लोगों कि मानसिकताओं के साथ बलात्कार है, जो समलैंगिक सम्बन्ध को सही नहीं मानते। जरा सोचिये कि आने वाली पीढी पर इसका क्या असर पड़ेगा? कल तक जिस कार्य को अपराध माना जाता था, आज वो अपराध की श्रेणी में नहीं है। शायद हम यह नहीं जानते कि ऐसे सम्बन्ध को रजामंदी देने से हम एड्स जैसी भयावह बिमारी को भी न्योता दे रहे हैं।
- अभिषेक राय 3 June 2009