खुशियों के आंगन में कब गम का पहरा लगा, पता ही न चला। मुझे आज भी उनकी आंखों से बहते आंसुओं की वो चमक याद है। तब कमरे में अंधेरा था और वहां मौजूद दो लोगों के होंठ, जैसे सिल से गए थे। वातावरण बिलकुल शांत। आवाज़ आ रही थी, तो सिर्फ सांसों की। कमरे में जो थोड़ी बहुत रोशनी थी, उसमें खिला सा एक मासूम चेहरा ठीक मेरी नज़रों के सामने उस ग़मगीन माहौल को मुझसे छुपाने की कोशिश कर रहा था। आखिर कब तक छुपा पता। मोती रूपी आंसू एक-एक कर नेत्र सीमा के बहार आ ही गये।
यह मंजर था मेरी उससे दूसरी मुलाकात का। दुर्भाग्य से यह वह दिन था, जब किसी अनजान के समक्ष मेरी ख़ुशी को प्रस्तुत होना था। ऐसी परिस्थिति से शायद ही किसी का सामना हुआ होगा। इस मुलाकात से चार दिन पहले जिन खुशियों के सहारे अपने गांव गया था, मुझे अंदाज़ा भी न था कि जिंदगी के इस पड़ाव पर आकर ऐसे कड़वे सच से कभी सामना भी होगा।Wednesday, December 1, 2010
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